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मेघवंश इतिहास और संस्कृति-पुस्तक का सार

Sunday, February 28, 2016

मेघवंश : इतिहास और संस्कृति - लेखक- ताराराम
पुस्तक-सार
भारत में अनगिनत जातियाँ हैं. अनुसूचित जातियों
की संख्या भी बहुत
बड़ी है जो 6000 से अधिक नामों में
बँटी हुई हैं. ’मेघ‘ जाति 10 राज्यों और 2
केन्द्र शासित क्षेत्रों में अधिसूचित अनुसूचित जाति है. 8
राज्यों में यह ’मेघ‘ नाम से अधिसूचित है.
छतीसगढ़ व मध्यप्रदेश में यह केवल
‘मेघवाल‘ नाम से अधिसूचित है. महाराष्ट्र में मेघवाल व
मेंघवार नाम से, गुजरात में मेघवार, मेघवाल व मेंघवार नाम से
तथा राजस्थान में ‘मेघ‘ के साथ मेघवल, मेघवाल और मेंघवाल
के नाम से अधिसूचित है. जम्मू-कश्मीर में
मेघ व कबीर पंथी के नाम से
अधिसूचित है. कश्मीर से लेकर कोयम्बटूर
तक कोई भी ऐसा प्रदेश नहीं
है जहाँ यह जाति अधिसूचित नहीं
है. यह संपूर्ण भारत के विस्तृत भू-भाग में निवास करने
वाला एक प्राचीन समाज है. उत्तर प्रदेश,
बिहार, झारखंड, पं. बंगाल और पूर्वी राज्यों में
यह अनुसूचित जातियों में शुमार नहीं है.
दक्षिण में केरल, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और
उड़ीसा में भी मेघ अनुसूचित जातियों
में शुमार नहीं है. जिन प्रदेशों में यह
जाति अधिसूचित नहीं है, वहाँ
भी इस जाति के लोग निवास करते हैं, परंतु
उसके प्रामाणिक आंकड़े उपलब्ध नहीं है.
परंपरागत रूप से मेघ लोग एक ही वंश के
लोग हैं. ये अपने आपको 'मेघ', ‘मेघवंशी‘
कहते हैं. शौर्य, पुण्य-प्रताप, कीर्ति
और ख्यातिप्राप्त 'मेघ' (ऋषि) को अपना आदि पुरुष को
मानते हैं. इस प्रकार 'मेघ' के वंशधर ही
मेघ नाम से जाने गए व हिंदू धर्म के उत्थान के साथ
यह समाज धीरे-धीरे एक जाति
के रूप में अलग-थलग पड़ा और वंचित (आज
की अनुसूचित) जातियों में शामिल हो गया.
मेघवंश के संस्थापक से संबंधित मान्यताएँ
मेघ जाति से संबंधित सभी परंपराएँ और मेघ
जाति की उत्पत्ति 'मेघ' नामक पुरुष के वंशधरों
से होना स्वीकार किया जाता है. मेघों
की कुछ परंपराएँ इसके प्रतिष्ठापक आदि पुरुष
मेघ के समान ही क्षत्रिय मूल
की और कुछ परंपराएँ ब्राह्मण मूल
की हैं. इनके तहत संस्थापक-पुरुष 'मेघ'
के नाम के साथ सिरी, चन्द, कुमार और रिख
शब्द प्रयुक्त किया जाता है. इस प्रकार इस आदिपुरुष को
मेघसिरी, मेघचन्द, मेघकुमार और मेघरिख
कहा जाता है. इनको मानने वाले सभी लोग
एक ही परंपरा और एक ही
वंश के हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है.
मेघों की ऐतिहासिकता
मेघवंश भारत का एक ऐतिहासिक व प्राचीन
समाज है. डॉ. नवल वियोगी 'मेघ' जाति को
महान भारत में वर्णित 'मद्र' जाति से
समीकृत करते हैं. प्रसिद्ध इतिहासकार
के. पी. जायसवाल आदि इसका उत्थान कोसल
से, कुछ कन्नौज के राजा विमलचन्द्रपाल के पोते मेघचन्द
से, कुछ गंधार-कश्मीर से व कुछ वर्तमान
राजस्थान के प्राचीन भू-भाग से मानते हैं.
ऐतिहासिक रूप से कोसल-बघेलखंड से इस जाति के उत्थान
के सुस्पष्ट प्रमाण प्राप्त होते हैं. गंधार-
कश्मीर में 6ठी
शताब्दी के बाद के प्रमाण मिलते हैं.
राजस्थान से मेघ जाति का उद्गम मानने वाली
मान्यता ‘धारूमेघ‘ को ही मेघ और मेघ रिख
मानती है जिसकी उपस्थिति
मालाणी (राजस्थान का बाड़मेर जिला) के अधिपति
माल दे (मल्लीनाथ) की
समकालीन है. इस प्रकार तथ्यों के आधार
पर इसका उद्गम कोसल से माना जा सकता है, जो उस
समय सिंधु घाटी सभ्यता का ही
एक प्रमुख भू-भाग था. मेघ लोग वहीं से
भारत के विभिन्न भू-भागों में आए व गए. अपनी
परिस्थिति के लिहाज़ से ये यहाँ-वहाँ के
निवासी बन गए.
इस प्रकार मेघवंश एक प्राचीन क्षत्रिय वंश
था न कि क्षत्रियों से उत्पन्न हिंदू धर्म की
एक जाति. उनकी जाति आधारित
हीनता की जड़ें उनके हिंदू
धर्म में विलीन होने की प्रक्रिया
में छिपी हैं.
विलीनीकरण की
प्रक्रिया में मेघवंशी अपनी
मान्यताओं और विश्वासों पर अडिग रहे परंतु वे
अपनी विशिष्ट संस्कृति की
पहचान खोते गए. धीरे-धीरे वे
हिंदू धर्म की हीन जातियों में
शामिल हो गए.
प्राचीन काल में बंदियों और युद्ध बंदियों को दास
बना लिया जाता था और ऐसे लोग अपनी स्वतंत्रता
खो देते थे. पराजित लोग या तो वहां से कूच कर जाते थे या
दासत्व को स्वीकार कर लेते थे. अतः स्पष्ट
है कि मेघों के द्वारा ‘सागड़ी‘ या
‘हाली‘ के रूप में दासत्व को
स्वीकार करना उनकी पराजय का
परिणाम है. दासत्व को स्वीकार करने वालों में
उनकी संख्या अधिक थी, जो
राजनीतिक कारणों से पीड़ित होते
थे अथवा विषम परिस्थितियों के शिकार हो जाने पर दासता
की ओर उन्मुख होते थे. मेघों के दासत्व
स्वीकार्य में भी उनके द्वारा किए
जाने वाले कार्यों या व्यवसायों का निश्चित रूप तय
नहीं था. उनसे कपड़ा बनवाना,
खेती-बाड़ी का कार्य करवाना, ढोर-
पशु की देखभाल करवाना, चमड़े का काम करवाना
आदि कोई भी कार्य निष्पादित करवाए जा सकते
थे, परंतु अधिकांश मेघों ने कपड़े बुनने के कार्य में
ही अपने को संलग्न किया और एक तरह
से यह पुश्तैनी धंधा बनकर उभर गया.
इस समाज की जीविका के प्रमुख
साधन खेती, खेती
मजदूरी और कपड़ा बुनना रह गया. इतना सब
कुछ होने के बावजूद भी मेघवाल जाति
की उत्पत्ति किसी भी
व्यवसाय से नहीं हुई है. वास्तव में
यह विशिष्ट मान्यताओं वाला पृथक समूह था जो एक
अलग जाति बन गई.
मेघों के पराभव का सर्वप्रथम कारण युद्ध में हारना
ही रहा है. ऐसे पराजित लोगों को जो
जीवनदान मिलता वह अपनी
स्वतंत्रता खोकर ही मिलता था. जो लोग
किसी तरह से वहाँ से पलायन कर जाते थे,
वेभी कहीं और जा कर अन्य
प्रभुत्व संपन्न लोगों के मातहत अपनी
वास्तविकता को छुपाते हुए जीवन-यापन करने
को मजबूर होते थे. परिवार की आर्थिक स्थिति
बिगड़ने व अकाल आदि अन्य कारणों से भी
उनकी हालत बिगड़ती
थी. इस प्रकार इनकी दासता
की बेड़ियाँ दृढ़तर होती गईं.
तत्कालीन समाज व्यवस्था में ऐसे पराजित दासों
की निम्नतर स्थिति बनाने में स्मृति काल ने आग
में घी डालने का काम किया.
राजस्थान के गोला, दरोगा, चाकर, दास, खानेजादा, चेला इत्यादि
जातियों की तरह का दासत्व मेघ समाज के लोगों
में नहीं रहा परंतु फिर भी
उनका जीवन गुलामी से कम
नहीं था. वे अपनी
आजीविका के लिए दर-दर भटकते रहे, परंतु
दासत्ववृत्ति को कभी स्वीकार
नहीं किया. स्थान, समय और हालात के
अनुसार विभिन्न व्यवसाय और आजीविका
अपनाते रहे. ऐसे में वे इधर से उधर, देश-विदेश के
विभिन्न भागों में अलग-अलग नामों के साथ जीवन
यापन का सहारा खोजने लगे. अतः उनका सामाजिक संगठन
भी बिखर गया और वे विभिन्न जातियों में घुलते-
मिलते गए. उनका मुख्य पेशा ‘कताई-बुनाई‘ रहा और वे
खेत-खलिहनों के धधों पर भी ज्यादा से ज्यादा
निर्भर होने लगे. मेघ समाज की जहाँ एक
ओर सामाजिक स्थिति निम्न हुई, वे अपनी
धार्मिक और सामाजिक परंपराओं पर भी दृढ़
नहीं रह सके. उनके सामाजिक, धार्मिक
रीति-रिवाजों और परंपराओं पर प्रतिदिन प्रहार
होता रहा. उस दौर में उनकी
जातीय-पंचायतों में हलचल थी.
पराजित मेघ राजाओं और उनकी प्रजा के सामने
विकल्प कम थे. इतिहास साक्षी है कि
‘मेघवंश‘ ने अपनी संस्कृति को अक्षुण्ण
बनाए रखने हेतु अमानवीय शर्तों के
अधीन रहना भी
स्वीकार किया, परंतु वैदिक कर्म-कांड और
ब्राह्मणी-वितंडावाद से दूर रहे. इस संदर्भ
में ऐतिहासिक शोध हमारे इतिहास को समझने में
महत्त्वपूर्ण होगा.
दासों को अपने स्वामी का नाम ओर गोत्र मिल जाता
था. तत्कालीन समय की सामाजिक
और राजनीतिक व्यवस्था स्पष्ट
करती है कि दासों को स्वामी
की जाति-गोत्र से ही पुकारा जाता
था. इस समाज के लोग न तो स्वेच्छा से दास बने थे और न
ही वैदिक व्यवस्था के अंग थे, अपितु हारे
हुए लोगों का समूह था या युद्ध बंदी और
दास थे. जिनकी दासता की बेड़ियाँ
तभी टूट सकती थीं
जब उनके पक्ष की विजय हो.
ऐसी विशेष परिस्थितियों की अपेक्षा
में ये लोग इधर-उधर बिखरने लग गए और संपूर्ण भारत में
फैल गए. संभवतः मेघों का पलायन राजस्थान में राजपूतों का
पूर्वकालीन ही रहा होगा,
क्यों कि जहाँ-जहाँ राजपूत गए, वहाँ-वहाँ ये लोग
भी आगे-पीछे भटकते रहे हैं.
राजपूतों और मेघों की स्थिति उस समय एक-
सी रही होगी,
परंतु राजपूतों ने शक्ति संचय कर राजस्थान में अपने ठिकानों
की स्थापना करनी शुरू कर
दी, वहीं मेघों ने अपने बिखराव
की स्थिति के कारण इन नए क्षत्रपों के
अधीन अपने को मानना शुरू कर दिया. मारवाड़ में
राजपूतों और मेघों के सम्बंध विविधरूपा रहे हैं, जो इस
सच्चाई को स्पष्ट करते हैं.
कतारिये-मेघवाल
मेघ-सत्ता की अवनति के बाद शासन-सत्ता का
कोई केन्द्र नहीं रह जाने के बावजूद
भी देश के कई व्यापारिक मार्गों पर मेघों का
आधिपत्य था. राजस्थान से होकर गुजरने वाले इन
प्राचीन व्यापारिक मार्गों पर आज
भी मेघवालों की सघन बस्तियाँ हैं,
जो इस बात को प्रमाणित करती है कि
18वीं व 19वीं शताब्दी
तक कई प्रमुख मार्गों पर किसी न
किसी रूप में मेघों का कम या ज्यादा आधिपत्य या
दबदबा बना रहा. परंतु हर जगह व हर समय
यह संभव नहीं होता था. अतः ऐसे
सुरक्षा दायित्व में कई बार उन्हें मेहनताना दिया जाता और
कई बार उनसे बेगार कराई जाती थी.
इस समय भी मेघवाल समाज के कई परिवार व
कई लोग अपना खुद का सार्थवाह रखते थे. मेघवालों के
सार्थवाह में ऊँटों का काफिला प्रमुख रूप से होता था. ऊँटों
पर सामान लादकर ये लोग वर्तमान पाकिस्तान के हैदराबाद,
कराची, पेशावर तक सामान का आदान-प्रदान
करते थे. मेघवालों के ऐसे काफिलों में संलग्न लोगों को कतारिया
कहा जाता था. मेघवालों के कई कतारिया परिवार साख एवं
साहूकारी का कार्य भी करते थे
और जैसलमेर तथा बाड़मेर के
सीमावर्ती इलाकों में इन कतारियों
की अपनी पहचान एवं प्रतिष्ठा
थीं.
जैसलमेर, बाड़मेर तथा जोधपुर आदि जिलों की
सीमा में बसे मेघवालों के इन कतारिया परिवारों
की दुर्दशा आज भी
देखी जा सकती है. जो
कभी-कभार अपने दुख-दर्दों को कहानियों में
बयान कर देते हैं. जागीरदारों, सामन्तों,
महाजनों और अन्य जंगली एवं बर्बर जातियों
की ठगी एवं साठ-गाँठ के ये शिकार
हो जाते थे. महाजन व दलालों को सहूलियतें और
सुरक्षा मिलने से धीरे-धीरे मेघवाल
समाज ने उससे अपने को पृथक कर लिया.
सामन्तशाही ने जहाँ मेघों की
इस जीविकावृत्ति की उपेक्षा
की और उन्हें किसी प्रकार का
संरक्षण नहीं दिया, वहीं
अंग्रेजों ने भी अपने निहित स्वाथों
की पूर्ति के लिए महाजनों, दलालों और बिचौलियों
को प्रश्रय देकर मेघों की इस
जीविकावृत्ति पर बुरी तरह से
प्रहार किया. अब वे सिर्फ कृषि कार्यों तक सिमटकर रह
गए. साथ ही वे छोटे-छोटे मजदूरी
के दूसरे धंधों में लग गए. विभिन्न प्रकार के करों से दबे
मेघवालों पर भार बहुत पड़ता था. महाजन व बिचौलिये
अपने संबंधों से इसमें हेर-फेर कर लेते थे.
व्यापार वाणिज्य के इन क्रिया-कलापों के अलावा मेघवाल कौम
के व्यक्ति चिट्ठी- पत्री लाने-
लेजाने का भी काम करते थे. यह कार्य बेगार
के रूप में ही किया जाता था. मेघों ने कई बार
इसका सामूहिक विरोध भी किया, परंतु उनको
सांत्वना देने वाला तक कोई नहीं था. इस प्रकार
से कई मेघवाल राजस्थान छोड़कर अन्य प्रदेशों में जा बसे.
धार्मिक रीति-रिवाज
देवरा
मेघवाल समाज के आराध्य-स्थल को विशेष नाम से पुकारा किया
जाता है. मेघवंश के ऐतिहासिक समय से लेकर
भक्तिकाल तक के समय का विश्लेषण यह सुस्पष्ट
करताहै कि इस समाज ने अपने 'आराध्य-स्थल' को
कभी भी मंदिर, मस्जिद या मठ के
रूप में नहीं जाना है. इनके संत पुरुषों या
सिद्धों के ‘ध्यान-विपश्यना‘ स्थल को ये ‘धूणी‘
शब्द से पुकारते हैं और ऐसे पुरुषों की स्मृति
में बनाए जाने वाले 'मंदिर' या 'मठनुमा' आकृतियों को 'देवरा'
कहते आए हैं. मंदिर और देवरा या देवरे की
परिकल्पना में बहुत बड़ा अंतर है. 'देवरा' या 'देवरे'
वस्तुतः मेघवंश के ऐतिहासिक काल में कहे जाने वाले
‘स्तूप‘ का ही पर्याय है, जो मेघवंश के
आराध्य स्थल रहे हैं. स्तूप या देवरे महापुरुष के
प्रतीकात्मक रूप माने गए हैं,
वहीं मंदिर में देव-प्रतिमा की
स्थापना सुनिश्चित मानी जाती है.
वासुदेव शरण अग्रवाल ठीक ही
लिखते हैं, 'स्तूप में महापुरुष या बुद्ध की
परिकल्पना है और मंदिर में देव की. इस दृष्टि
से स्तूप महापुरुष के निर्वाण में चले जाने का शोकात्मक
प्रतीक नहीं था. परंतु भौतिक
धरातल पर प्रकट होने और पूर्ण आनंद और ज्योति का
प्रतीक था. महापुरुष भू-लोक में प्रकट
होकर निर्वाण या मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं, यह
कोई विषाद या रोने-धोने का हेतु नहीं है,
किंतु वे मूर्त रूप में प्रकट होते हैं. यह सार्वजनिक
हर्ष और कृतज्ञता का कारण है, जिसके लिए
सभी देव और मनुष्य प्रसन्नता व्यक्त करते
हैं. यह आनंद का भाव स्तूप के
सहचरी शिल्पांकन में बारंबार देखा जाता था.
महापुरुष का मनुष्य लोक में आगमन किसी
दिव्य-ज्योति का भूमि पर अवतरण है, जिसकी
रश्मि इस लोक में एक ज्वाला के रूप में सदा विद्यमान
रहेगी. महापुरुष का प्रतीक
स्तूप उसके ज्ञानमय या तपोमय जीवन का
उत्तम प्रतीक माना गया और
उसकी स्वर्णमयी या
रत्नमयी कल्पना की.
धीर-धीरे स्तूप भी
प्रतीकात्मक मूर्ति रूप में बनने लगे और पूजे
जाने लगे.' प्रसिद्ध इतिहासकार वासुदेव शरण अग्रवाल व
प्रो. राधेशरण के इस ऐतिहासिक विवेचन एवं विश्लेषण से
यह सुस्पष्ट है कि मेघवाल समाज में ’देवरे‘
की पवित्रता का जो भाव है, वह इस
ऐतिहासिक आधार पर ही है. उनके
आराध्य-स्थल ‘देवरे‘ किसी मंदिर के रूप में
नहीं हैं बल्कि मेघवंश के समय में
आराध्य रहे ‘स्तूप‘ का ही अन्य रूप
हैं. इन देवरों में महापुरुषों की वह
प्रतीकात्मक भावना होती है,
जो इस समाज की आध्यात्मिक अवधारणाओं में
व्याप्त होती है.
'देवरों' की यह परंपरा निश्चित रूप से 'स्तूप'
की अवधारणा पर ही अवस्थित
है. इतिहासकारों ने इस अवधारणा के प्रस्फुटन का समय
भी मेघवंश का समकालीन माना
है. इतिहासकार प्रो. राधेशरण के शब्दों में
"प्रतीकात्मक स्तूप में किसी
महापुरुष के अस्थि-अवशेष नहीं, अपितु
वह प्रतीक भावना होती
थी, जो जन-मानस में व्याप्त
होती थी. बौद्धाचार्यों ने स्तूप को
बुद्ध के भव्य व्यक्तित्व का प्रतीक रूप मान
लिया था. कालांतर में महान बौद्धाचार्यों के अस्थि-अवशेषों पर
भी स्तूप बने. इन समस्त स्तूपों में
वही प्रतीक भावना व्याप्त
थी. थेरवादियों ने मूर्ति की अपेक्षा
स्तूप पूजा को प्रश्रय दिया. इन बौद्धों ने पूज्य भाव
संकल्पित स्तूपों का निर्माण शुरू किया. इसी के
साथ संकल्पित स्तूपों के निर्माण की परंपरा
चली. संकल्पित स्तूपों के निर्माण
की परंपरा संभवतः शक-कुषाण काल से शुरू
हो गई थी, जो संभवतः बाद में भी
चलती रही. हमें देउर कुठार
में 46 संकल्पित स्तूपों के अवशेष प्राप्त हुए
हैं" (प्रो. राधेशरण, पृष्ठ 165) हमें यह सुविदित
है कि मेघवंश का काल कुषाणों के परवर्ती
काल का समकालीन है, उनके समय में
ही स्तूप की अवधारणा जन-
मानस में उभरी और जहाँ-जहाँ मेघवंश के
उत्तराधिकारी गए अपने पूजा स्थल
की यह अवधारणा साथ में ले गए.
कुल देवी पूजा
'कुल' की परंपरा सिद्धों की
आराध्य परंपरा का वैशिष्ट्य है, जिसे यह समाज मानता
आया है. 'पदचिन्हों' की पूजा के अतिरिक्त
मेघवाल परिवारों में कुल देवी या इष्ट
देवी की पूजा या आराधना
की परंपरा भी प्रचलित है.
प्रत्येक मेघवाल कुनबे की अलग-अलग कुल
देवी होती है अर्थात प्रत्येक
'खाप' की अलग-अलग कुल देवी
होती है. देवी को ये लोग 'जोत'
करते हैं एवं चढ़ावा भी चढ़ाते हैं.
एक ही कुनबे या एक ही
खाप के लोग प्रत्येक 'मंगल-कार्य' के लिए
अपनी कुल देवी को चढ़ावा चढ़ाते
हैं. कई खापों में वे अपनी कुल
देवी को बकरे की बलि
भी चढ़ाते हैं, तो कई खापें अपनी
कुलदेवी को ‘चूरमा‘ आदि मीठा
प्रसाद चढ़ाती हैं. लड़की के घर
से विदा होने पर व आने पर 'गवाडी' में प्रवेश
करते समय सबसे पहले 'कुल देवी' के
आराध्य-स्थल पर धोक (पूजा-अर्चना) दिया जाता है.
बहु भी अपने ससुराल की कुल
देवी को 'धोक' देती है. वह
भी पीहर जाने से पहले व
ससुराल आने पर सबसे पहले कुल देवी के
उपास्य स्थल पर अर्चना करती है.
व्यक्तिगत पूजागृह
मेघवाल समाज एक अध्यात्म प्रवर समाज माना जाता है.
इस समाज के व्यक्तियों की पूजा-आराधना
की विधियाँ या तरीके अन्य समाजों के
ऐसे तरीकों से कई अर्थों में भिन्न हैं.
अधिकांश मेघवाल परिवारों में अपने-अपने 'पूजा-गृह' होते
हैं. इनकी आकृति 'चैत्याकार'
होती है. परिवारों के इन व्यक्तिगत 'पूजा-
गृहों' में 'पदचिह्न', अपने-अपने इष्ट-देव
की प्रतिमा, पूजा में प्रयुक्त होने वाले विविध
उपकरण यथा माला, धूप, दीपक आदि रखे
होते हैं और ये परिवार नित्य प्रातः-सायं अपने 'इष्ट-
देवों' की पूजा करते हैं.
इसके अतिरिक्त पुस्तक में मेघवंश के व्रत-उपवास,
वेशभूषा, उजोवणा-निमंत्रण, साख्या या साकिया, मरणासन्न
मान्यताओं, अंतराभव, शंखोद्धार या संकोढ़ाल, वैशाख स्नान
और सांस्कृतिक मूल्यों (खानपान, भोजन-नियम,
पगड़ी धारण, आभूषण, गृहनिर्माण परंपरा,
वाद्य यंत्र, रोशनी, सफाई-पानी
की व्यवस्था, पीळा औढ़ना आदि का
भी विशद वर्णन किया गया है.

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